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<noinclude><pagequality level="1" user="नीलम" />{{rh||देशान्तर-गमन।|३६५}}</noinclude>आधे पेंट भी खाने को मिलता है तहाँ तक वे स्थानान्तर करना पसन्द नहीं करते है और करे भी तो उन्हें बड़े बड़े दुःख झेलने पड़ते हैं। इस समय हुज़ारों भारतवासी मारिशस, इमरारा, ट्रनिडाड, माल्टा, मट्टाल, ट्रान्सचाल,
और कनाडा में हैं। उनका जाना आना वराबर जारी भी है। चद्दर थे लोग पदा भी खूब करते हैं। इससे सिद्ध है कि यद्यपि यहाँ घालै बाहरजाना कम पन्दि करते हैं तथापिं मुघल दरिद्र अथवा और कारणों से प्रेरित होकर वे अब विदेश जाने भी लगे हैं। परन्तु कुछ दिनों से गोरे चमड़े वालों ने इन्हें निकाल बाहर करने की ठानी है। ट्रान्सचाल में भारतवासियों पर जो अत्याचार हो रहा है वह किसे नहीं मालूम ? कनाडा में यहूर चालें की जो बेइजती हो रही है उसका वर्णन सुन कर किस भारतघासी का चित्त नहीं सन्तप्त होता ? अस्ट्रेलिया में भारतवासियों का प्रवेशद्वार जौ वन्द कर दिया है चह फ्या कम अन्याय की बात है ? भारत गोरे, अधगोरे, लाल, कम लाल, काले, सब तरह के चमड़े के आदमियों की बपौती है, पर भारत के आदमियों को कहीं अन्य देश में जाकर रहने का अधिकार नहीं! इस दशा में यदि देशान्तर-गमन से किसी विशेप लाभ की संभावना भी हो तो भी बेचारे भारत के लिए वह अग्रोप्य नहीं तो दुर्लभ ज़रूर है ।
सच पूछिए तो यहां बालों के लिए बाहर जाने की अभी चैसो ज़रूरत भी नहीं है। औसत लगाने से मालूम हुआ है कि सारे यूरए में जितने सचे पैदा होते हैं, हिन्दुस्तान में १०० पीछे ७५ घहाँ की अपेक्षा कम पैदा होते हैं । पर मरते अधिक हैं । युरष के मुकाबले में यहाँ उत्पत्ति कम होती है, ना अधिक होता है । इंगलैंड में एक वर्गमील में ५५० आदमी बसते हैं, हिन्दुस्तान में सिर्फ १७० ! यहां पर ४,५०,००० वर्गमील जमीन ऐसी पड़ी हुई है जिसमें खेती हो सकती है। हां यहाँ भी कुछ भाग ऐसे हैं जहाँ की वस्ती बहुत घनी है । पर कुछ भाग-विशेष करके देश रियासतों में पैसा भी है जहां बहुत कम आबादी है । अतएव घने बसे हुए प्रान्त से लोग यदि कम घने, या बिलकुल ही मनुष्यहीन, भागों में जा घसे है। जैा लाभ देशान्तर-गमन से होता है वही भिन्न-प्रान्त-चास से भी हो । यदि जमीन का लगान फम है। जाय, सब कहीं इस्तिमरारी बन्दोवस्त हो जाय, और अनाज की रफ्तनी विदेश को कम कर दी जाय तो जिसने अदमियों का गुजारा इंस समय होता है उससे कहीं अधिक का<noinclude>[[श्रेणी:सम्पत्ति-शास्त्र]]</noinclude>
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<noinclude><pagequality level="1" user="नीलम" />{{rh|३६६|सम्पत्ति-शास्त्र।|}}</noinclude>सम्पत्ति-शास्र । होने लगे । एक पति और भी है। यहां के निवासी वैज्ञानिक रीति से खेती करना नहीं जानते । एक वीवे में यहाँ जितना अनाज पैदा होता है। यूरप और अमेरिका आदि में उससे दूना, तिगुना होता है। यहां शिक्षप्रचार और उन्नत-प्रणाली से, यंत्रों को सहायता द्वारा, खेती करना सिखलाने की बहुत बड़ी जरुरत हैं। यदि ये सब बाने, या इनमें से थोड़ी भी हो जाये तो सम्पत्ति की वृद्धि होने लगे ; प्रज कल की अपेक्षा अधिक अनाज पदा हो; उपजीविका के साधन बढ़ जायें , सौर बहुत कल तक देशान्तर-मन को आवश्यकता न हो । इस कार्यय-सिद्धि के लिए प्रयत करना राजा और प्रज्ञा दोनों का कर्तव्य है ! मङ्गलमय भगवान् इन विषय में हमारी सहायता करें।
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}}हिन्दुस्तान सम्पत्तिहीन देश है। यहाँ सम्पत्ति की बहुत कमी है। जिधर आप देखेंगे उधर ही आपको दरिद्र-देवता का अभिनय, किसी न किसी रूप में, अवश्य दिख पड़ेगा। परन्तु इस दुर्दभनीय दारिद्र के देख कर भी कितने आदमी ऐसे हैं जिन को उसका कारण जानने की उत्कण्ठा होती हो? यथेष्ट भोजन-वस्त्र न मिलने से करोड़ों अदमी जो अनेक प्रकार के कष्ट पा रहे हैं क्या उनका दूर किया जाना किसी तरह सम्भव नहीं? गली-कूचों में, सब कहीं, धनाभाव के कारण जो कारुणिक क्रन्दन सुनाई पड़ता है उसके बन्द करने का क्या कोई इलाज नहीं? हर गाँव और हर शहर में जो अस्थिवर्मावशिष्ट मनुष्यों के समूह के समूह आने जाते दिख पड़ते हैं उनकी अवस्था उन्नत करने की क्या कोई साधन नहीं? बताइए तो सही, कितने आदमी ऎसे हैं जिनके मन में इस तरह के प्रश्न उत्पन्न होते हैं? उत्तर यहीं मिलेगा कि बहुत कम अदमियों के मन में। यदि कुछ लोगों की ये बातें खटकती भी हैं तो उनमें से बहुत कम यह जानते हैं कि इस सारे दुख-दर्द का कारण क्या है। बिना सम्पत्तिशास्रीय ग्यान के. इसका यथार्थ कारण जानना बहुत कठिन है. और, सम्पत्तिशास्त्र किस चिड़िया का नाम है, यह भी हम लोंग नहीं जानतें जाननें सिर्फ वहीं मुठ्ठी भर लोग हैं जिन्होंने कालेजों में अगरेज़ी-की न्यू-शिक्षा-पाई है। अगर करोड़ भारतवासियों के सामने उच्च-शिक्षा-प्राप्त लोंग की संख्या दाल में नमक के बराबर भी तो नहीं। अतएव सम्पत्ति-शास्त्र के सिद्धांतों के प्रसार की यहाँ बहुत बड़ी जरूरत है।
सम्पत्तिशास्त्र पढ़ने और उसपर विचार करके उसके सिद्धान्त के अनुसार व्यवहार करने से यहाँ की दरिद्रता थोड़ी बहुत ज़रूर दूर हो सकती<noinclude>[[श्रेणी:सम्पत्ति-शास्त्र]]</noinclude>
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<noinclude><pagequality level="1" user="ममता साव" />{{c|( ङ )}}</noinclude>आफ इंडिया', प्रो० मैकडानल और कीथ-कृत 'वैदिक इंडैक्स' और
आफेक्ट का 'कैटेलागस् कैटेलागरम', इलियट की 'हिस्ट्री आफ
इंडिया', मेरी बनाई हुई 'भारतीय प्राचीन लिपिमाला', 'सोलंकियों
का प्राचीन इतिहास', 'राजपूताने का इतिहास' तथा 'नागरीप्रचारिणी
पत्रिका' और 'इंडियन एंटिक्वेरी', 'एपिमाफिया इंडिका' आदि पत्रि-
काएँ विशेषतः उल्लेखनीय हैं।
हिंदुस्तानी एकेडेमी को एक बार फिर धन्यवाद देते हुए मैं
अव प्रस्तुत विषय पर अपने विचार आरंभ करता हूँ।
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इंडिया', मेरी बनाई हुई 'भारतीय प्राचीन लिपिमाला', 'सोलंकियों
का प्राचीन इतिहास', 'राजपूताने का इतिहास' तथा 'नागरीप्रचारिणी
पत्रिका' और 'इंडियन एंटिक्वेरी', 'एपिमाफिया इंडिका' आदि पत्रिकाएँ विशेषतः उल्लेखनीय हैं।
हिंदुस्तानी एकेडेमी को एक बार फिर धन्यवाद देते हुए मैं
अब प्रस्तुत विषय पर अपने विचार आरंभ करता हूँ।
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<noinclude><pagequality level="1" user="ममता साव" />{{c|( ७४ )}}</noinclude>२-प्राकृत भाषा का सर्व साधारण में प्रचार था। यही बोल-
चाल की भापा थी। इसका भी साहित्य बहुत उन्नत था ।
३-दक्षिण भारत की तरफ यद्यपि पंडितों में संस्थान का प्रचार
था, तथापि वहाँ की बोलचाल की भापा द्राविड़ो थी, जिसमें तामिल,
तेलगू, मलयालम, कनाड़ी अादि भापायों का समावेश होता है।
इनका साहित्य भी हमारे समय में उन्नत हुआ। अब हम क्रमशः
इन तीनों आपाओं के साहित्य पर विचार करते हैं।
.
ललित साहित्य
साहित्य की दृष्टि से हमारा निर्दिष्ट समय बहुत उन्नत
है। हमारे समय से बहुत पूर्व संस्कृत साहित्य का विकास हो
चुका था पर इसकी वृद्धि हमारे समय में भी
संस्कृत साहित्य के
जारी रही। हम इस समय अन्य भापायों
विकास की प्रगति
के विकास की तरह संस्कृत में भापा-नियम
संबंधी या शब्दों के रूप-संबंधी परिवर्तन नहीं पाते। इसका एक
कारण है। इस समय से बहुत पूर्व-६०० ई० पूर्व के आसपास-
आचार्य पाणिनि ने अपने व्याकरण के जटिल नियमों द्वारा संस्कृत
को जकड़ दिया। पाणिनि के इन नियमों को तोड़ने का साहस
संस्कृत के किसी कवि ने नहीं किया, क्योंकि हमारे पूर्वज पाणिनि
को एक महर्षि समझते थे और उसमें उनकी अगाध भक्ति थी।
उसके नियमों को तोड़ना वे पाप समझते थे। यह प्रवृत्ति हम
लोगों में बहुत प्राचीन काल से चली आती है, तभी तो गहाभाष्यकार
ने पाणिनि के सूत्रों में कुछ स्थलों पर त्रुटियाँ दिखाते हुए भी अपने
को पाणिनि के रहस्यों को समझ सकने में असमर्थ कहकर उसका
आदर किया है
इस समय संस्कृत में लालित्य लाने की बहुत
कोशिश की गई। इसका शब्द-भांडार बहुत बढ़ा। संस्कृत की
.<noinclude></noinclude>
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