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अनुश्री साव
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<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>के पश्चात् स्वयं ही समाप्त हो जाती और फिर नई ताज़गी के साथ
प्रेम-समस्या को सुलझाने का प्रयत्न करता था।
नं० ८ जुविदा उर्फ जिंदा मोटे-मोटे हाय-पाँव वाली लड़की थी?
यदि उसे दूर से कभी देख लेता तो गुँथे हुए मैदे के समान ढेर दीख
पड़ती थी। मुहल्ले के एक नवयुवक ने एक बार उसको आँख मारी,
प्रेम की प्रथम सीढ़ी पर चढ़ने के लिये; परन्तु उस बेचारे को लेने के
देने पड़ गये। उस लड़की ने अपनी माँ से सब कुछ जा सुनाया और
उसकी माँ ने अपने बड़े लड़के से खुफिया ढंग से बात-चीत की और
उसको फटकारा। परिणाम इसका यह हुआ कि आँख मारने के
दूसरे ही दिन सायंकाल के समय जब अब्दुलगनी साहब हिकमत सीख
कर घर आए, तो उनकी दोनों आँखें सूझी हुई थीं। सुनते हैं, जुविदा
उर्फ जिदा चिक में से यह तमाशा देखकर बहुत ही प्रसन्न हुई। सैय्यद
को चूँकि अपनी आँखें बहुत प्यारी थीं, इसलिये वह जुविदा के विषय
में क्षण-भर के लिये भी सोचने को तैयार न था। अब्दुलगनी ने आँख
के द्वारा प्यार का श्री-गणेश करना चाहा था। सैय्यद को यह ढंग
बाज़ारी जान पड़ता था। यदि वह इसको अपना प्यार-भरा सन्देश
देना चाहता तो अपनी जबान को हिलाता, जो दूसरे दिन ही काट दी
जाती। मरहम पट्टी करने से पहले जुविदा का भाई कभी न पूछता कि
क्या बात है ? बस, वह लज्जा के नाम पर छुरी चला देता, उसको
इसका कभी विचार न आता कि वह छः लड़कियों का जीवन नष्ट कर
चुका है, जिनकी कहानियाँ बड़े मज़े के सरथ अपने मित्रों को सुनाया
करता था।
नं० ९ जिसका नाम उसको भी पता न था; परन्तु वह पश्मीने के
व्यापारियों के यहाँ नौकरी करती थी। एक बहुत बड़ा घर था, जिसमें
चारों भाई रहते थे। यह लड़की जो कश्मीर की पैदावार थी, इन चार
{{left|हवा के घोड़े}}
{{right|[२७}}<noinclude></noinclude>
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अनुश्री साव
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<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>भाइयों के लिये सर्द-ऋतु का शाल बन कर इनको आनन्द प्रदान करती
थी। ग्रीष्म ऋतु में वे सब से सब कश्मीर चले जाते और वह अपनी
दूर की बिरादरी में किसी स्त्री के पास चली जाती थी? यह लड़की
जो अब स्त्री का रूप धारण कर चुकी थी, दिन में एक दो वार अवश्य
ही उसकी नज़रों से गुजरती थी। इस लड़की को देखकर वह सदा
यही विचार करता कि उसने एक नहीं, तीन चार स्त्रियाँ इकट्ठी देखी
हैं। इस लड़की के विषय में जिसके विवाह के लिये चारों भाई चिन्ता
कर रहे थे। उसने कई बार सोचा! वह इसके फुर्तीलेपन पर बहुत ही
रीझ चुका था! वह घर का सारा काम-काज स्वयं ही संभालती थी।
वह इन चार सौदागर भाइयों की बारी-बारी सेवा भी करती थी।
वह देखने में प्रसन्न दीख पड़ती थी। इन चार सौदागरों को;
जिनके साथ इसके शरीर का सम्बन्ध था, वह एक ही दृष्टि से देखती
थी। इस लड़की का जीवन जैसा कि दीख पड़ता है, एक आश्चर्य जनक खेल था, जिस खेल में चार व्यक्ति भाग ले रहे थे। उन चार व्यक्तियों में से प्रत्येक को यही समझना पड़ता था कि वह तीनों भाई मूर्ख है। जब इस लड़की के साथ उनमें से कोई मिल जाता तो वह दोनों मिलकर यह सोचते या समझते होंगे कि घर में जितने आदमी रहते हैं, सब के सब अन्धे हैं; किन्तु क्या वह स्वयं अन्धी नहीं थी? इस प्रश्न का उत्तर सैय्यद को नहीं मिलता था। यदि वह अन्धी होती तो एक ही समय में चार व्यक्तियों से सम्बन्ध पैदा न करती, हो सकता है वह इन चारों को एक ही समझती हो...क्योंकि स्त्री और पुरुष का शारीरिक सम्बन्ध एक जैसा ही होता है।
वह अपने जीवन की सुनेहली घड़ियाँ आनन्दमय व्यतीत कर रही
थी। चार सौदागर भाई छुप-छुप कर कुछ न कुछ अवश्य ही देते होंगे; चूँकि जब पुरुष किसी भी स्त्री के साथ कुछ क्षण आनन्दमय व्यतीत करता है, तो उसके हृदय में उसका मूल्य चुकाने का विचार अवश्य ही
{{left|२८]}}
{{right|हवा के घोड़े}}<noinclude></noinclude>
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<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>उत्पन्न होता है; क्योंकि यह विचार एकान्त स्थान में पहुँचने से पूर्व ही
उत्पन्न होता है, इसलिये अधिक लाभप्रद होता है।
सैय्यद इसको प्रायः बाज़ार में शहाबुद्दीन हलवाई की दुकान पर
खीर खाते या भाई केमरसिंह फलों वाले की दुकान के पास फल खाते
देखता था। उसे इन वस्तुओं की आवश्यकता थी। फिर वह जिस
स्वतन्त्रता-पूर्वक फल और खीर खाती थी, इससे पता चलता है कि वह इनका एक-एक अंश हज़म करने का विचार रखती है।
एक बार सैय्यद शहाबुद्दीन की दुकान पर फालूदा पी रहा था
और सोच रहा था कि इतनी सुन्दर चीज़ को, किस प्रकार हज़म
कर सकेगा? वह आई और चार आने की खीर में एक पाने की रबड़ी
डलवा कर दो ही मिन्ट में सारी प्लेट चट कर गई। सैय्यद को यह
देख कर मन में ईर्ष्या हुई। जब वह चली गई तब शहाबुद्दीन के मैले
अधरों पर मैली मुस्कान की रेखाएँ उत्पन्न हुई और उसने किसी को
भी जो सुन ले पुकारते हुए कहा--"साली मजे कर रही है।"
यह सुनकर उसने उस लड़की की ओर देखा जो आँखें मटकाती
हुई फलों की दुकान के समीप पहुँच चुकी थी। भाई केसर सिंह की
दाढ़ी का मज़ाक उड़ा रही थी। वह सदा खुश रहती और सैय्यद
को यह देख कर अत्यन्त खेद होता। भगवान् जाने क्यों? उसके हृदय
में अद्भुत और गदले विचार उत्पन्न होते कि वह सदा प्रसन्न न रहे।
सन् तीस के प्रारम्भ तक वह इस लड़की के बारे में यही निर्णय
करता रहा कि इससे प्यार नहीं किया जा सकता।<noinclude>{{rh|हवा के घोड़े||[२९}}</noinclude>
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<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>उत्पन्न होता है; क्योंकि यह विचार एकान्त स्थान में पहुँचने से पूर्व ही
उत्पन्न होता है, इसलिये अधिक लाभप्रद होता है।
सैय्यद इसको प्रायः बाज़ार में शहाबुद्दीन हलवाई की दुकान पर खीर खाते या भाई केमरसिंह फलों वाले की दुकान के पास फल खाते देखता था। उसे इन वस्तुओं की आवश्यकता थी। फिर वह जिस
स्वतन्त्रता-पूर्वक फल और खीर खाती थी, इससे पता चलता है कि वह इनका एक-एक अंश हज़म करने का विचार रखती है।
एक बार सैय्यद शहाबुद्दीन की दुकान पर फालूदा पी रहा था
और सोच रहा था कि इतनी सुन्दर चीज़ को, किस प्रकार हज़म
कर सकेगा? वह आई और चार आने की खीर में एक पाने की रबड़ी
डलवा कर दो ही मिन्ट में सारी प्लेट चट कर गई। सैय्यद को यह
देख कर मन में ईर्ष्या हुई। जब वह चली गई तब शहाबुद्दीन के मैले
अधरों पर मैली मुस्कान की रेखाएँ उत्पन्न हुई और उसने किसी को
भी जो सुन ले पुकारते हुए कहा--"साली मजे कर रही है।"
यह सुनकर उसने उस लड़की की ओर देखा जो आँखें मटकाती
हुई फलों की दुकान के समीप पहुँच चुकी थी। भाई केसर सिंह की
दाढ़ी का मज़ाक उड़ा रही थी। वह सदा खुश रहती और सैय्यद
को यह देख कर अत्यन्त खेद होता। भगवान् जाने क्यों? उसके हृदय
में अद्भुत और गदले विचार उत्पन्न होते कि वह सदा प्रसन्न न रहे।
सन् तीस के प्रारम्भ तक वह इस लड़की के बारे में यही निर्णय करता रहा कि इससे प्यार नहीं किया जा सकता।<noinclude>{{rh|हवा के घोड़े||[२९}}</noinclude>
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<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>{{x-larger|{{right|'''२'''}}}}
{{right|'''***'''}}
सन् इक्कतीस के शुरू होने में केवल रात के चन्द घन्टे ही शेष थे।
सैय्यद रजाई में भी सर्दी अधिक होने के कारण काँप रहा था। वह
पतलून और कोट पहने हुए ही लेट गया था; किन्तु ठंड की लहरें
फिर भी उसकी हड्डियों तक पहुँच रही थीं। वह उठ खड़ा हुआ और
अपने कमरे की हरी रोशनी में जो इस ठंड में एक नया प्लाट तैयार
कर रही थी, उसने ज़ोर-ज़ोर से टहलना शुरू कर दिया ताकि खून
फिर से गर्म हो सके।
थोड़ी देर इस प्रकार चलने-फिरने के पश्चात् जब वह गर्मी का
अनुभव करने लगा तो वह आराम कुर्सी पर बैठ गया और सिगरेट
जला कर अपना दिमाग़ टटोलने लगा। उसका दिमाग़ खाली था, इसी
कारण वह कुछ तेज़ था। कमरे की सभी खिड़कियाँ बन्द थीं; परन्तु
वह वाहर गली की हवा वाली गुनगुनाहट सरलता पूर्वक सुन रहा था।<noinclude>{{rh|३०]||हवा के घोड़े}}</noinclude>
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<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>{{x-larger|{{right|'''२'''}}}}
{{right|'''***'''}}
सन् इक्कतीस के शुरू होने में केवल रात के चन्द घन्टे ही शेष थे।
सैय्यद रजाई में भी सर्दी अधिक होने के कारण काँप रहा था। वह
पतलून और कोट पहने हुए ही लेट गया था; किन्तु ठंड की लहरें
फिर भी उसकी हड्डियों तक पहुँच रही थीं। वह उठ खड़ा हुआ और
अपने कमरे की हरी रोशनी में जो इस ठंड में एक नया प्लाट तैयार
कर रही थी, उसने ज़ोर-ज़ोर से टहलना शुरू कर दिया ताकि खून
फिर से गर्म हो सके।
थोड़ी देर इस प्रकार चलने-फिरने के पश्चात् जब वह गर्मी का अनुभव करने लगा तो वह आराम कुर्सी पर बैठ गया और सिगरेट जला कर अपना दिमाग़ टटोलने लगा। उसका दिमाग़ खाली था, इसी कारण वह कुछ तेज़ था। कमरे की सभी खिड़कियाँ बन्द थीं; परन्तु वह वाहर गली की हवा वाली गुनगुनाहट सरलता पूर्वक सुन रहा था।<noinclude>{{rh|३०]||हवा के घोड़े}}</noinclude>
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<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>इसी गुनगुनाहट में उसे किसी इन्सान की आवाज़ भी आने लगी? एक घुटी-घुटी चीख, वर्ष की अन्तिम घड़ियों वाली रात के सन्नाटे में चाबुक के मारने के समान उभरी, फिर किसी की प्रार्थनाभय आवाज़ काँपी और वह उठ खड़ा हुआ और खिड़की के सुराख में से गली की
ओर निहारा।
वही ...वही लड़की अर्थात् सौदागरों की नौकरानी, बिजली के खम्बे के नीचे खड़ी थी, एक कम्बल, एक बनियान में बिजली की रोशनी में ऐमी दीख पड़ती थी कि उसके शरीर पर पतली सी बर्फ की तह
जम गई हो। इस बनियान के नीचे उसकी बेढंगी छातियाँ नारियल के
समान लटक रही थीं। वह इस ढंग से खड़ी थी, मानो अभी-अभी
कुश्ती लड़कर अखाड़े से बाहर आई हो। इस अवस्था में देखकर सैय्यद
के नन्हें और कोमल हृदय को बड़ा धक्का लगा।
इतने में किसी पुरुप की घबराई हुई आवाज़ आई..."खुदा के लिये अन्दर चली आयो ..कोई देख लेगा तो मुसीबत खड़ी हो जायेगी?" जंगली बिल्ली के समान लड़की ने गुर्रा कर कहा--"मैं नहीं आऊँगी ..बस एक बार जो कह दिया नहीं, आऊँगी।"
सब से छोटे सौदागर की आवाज़ आई, "खुदा के लिये ज़ोर से न
बोलो ..कोई सुन लेगा, राजो ..?"
राजो ने अपनी लंडूरी चोटियों को झटका देकर कहा-"सुन ले, खुदा करे कि कोई सुन ले ..और यदि तुम मुझे इसी प्रकार अन्दर आने
के लिये दुःखी करते रहे, तो मैं मुहल्ले भर को जगा कर सब कुछ
कह दूँगी ..समझे?"
राजो सैय्यद को दीख रही थी, जिससे वह बोल रही थी, वह नहीं
दीख पाया। जब सैय्यद ने बड़े सुराख में से राजो की ओर निहारा,
तो उसके शरीर से कम्पन छूट पड़ी। यदि वह सारी की सारी नंगी<noinclude>{{rh|हवा के घोड़े||[३१}}</noinclude>
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<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>इसी गुनगुनाहट में उसे किसी इन्सान की आवाज़ भी आने लगी? एक घुटी-घुटी चीख, वर्ष की अन्तिम घड़ियों वाली रात के सन्नाटे में चाबुक के मारने के समान उभरी, फिर किसी की प्रार्थनाभय आवाज़ काँपी और वह उठ खड़ा हुआ और खिड़की के सुराख में से गली की
ओर निहारा।
वही ...वही लड़की अर्थात् सौदागरों की नौकरानी, बिजली के खम्बे के नीचे खड़ी थी, एक कम्बल, एक बनियान में बिजली की रोशनी में ऐमी दीख पड़ती थी कि उसके शरीर पर पतली सी बर्फ की तह
जम गई हो। इस बनियान के नीचे उसकी बेढंगी छातियाँ नारियल के
समान लटक रही थीं। वह इस ढंग से खड़ी थी, मानो अभी-अभी
कुश्ती लड़कर अखाड़े से बाहर आई हो। इस अवस्था में देखकर सैय्यद
के नन्हें और कोमल हृदय को बड़ा धक्का लगा।
इतने में किसी पुरुप की घबराई हुई आवाज़ आई..."खुदा के लिये अन्दर चली आयो ..कोई देख लेगा तो मुसीबत खड़ी हो जायेगी?" जंगली बिल्ली के समान लड़की ने गुर्रा कर कहा--"मैं नहीं आऊँगी ..बस एक बार जो कह दिया नहीं, आऊँगी।"
सब से छोटे सौदागर की आवाज़ आई, "खुदा के लिये ज़ोर से न बोलो ..कोई सुन लेगा, राजो ..?"
राजो ने अपनी लंडूरी चोटियों को झटका देकर कहा-"सुन ले, खुदा करे कि कोई सुन ले ..और यदि तुम मुझे इसी प्रकार अन्दर आने
के लिये दुःखी करते रहे, तो मैं मुहल्ले भर को जगा कर सब कुछ
कह दूँगी ..समझे?"
राजो सैय्यद को दीख रही थी, जिससे वह बोल रही थी, वह नहीं दीख पाया। जब सैय्यद ने बड़े सुराख में से राजो की ओर निहारा, तो उसके शरीर से कम्पन छूट पड़ी। यदि वह सारी की सारी नंगी<noinclude>{{rh|हवा के घोड़े||[३१}}</noinclude>
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<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>होती तो शायद उसके कोमल विचार को धक्का न पहुंचता; परन्तु
उसके शरीर के वह अंग नंगे थे, जो दूसरे छिपे हुए अंगों को अपने
जैसा होने का आदेश दे रहे थे। राजो बिजली के खम्बे तले खड़ी थी।
सैय्यद को ऐसा महसूस हुआ कि औरत के विषय में उसके सभी विचार धीरे-धीरे कपड़े उतार रहे हैं।
राजो की भौंडी और मोटी-मोटी बाहें, जो कन्धों तक नंगी थीं,
घृणास्पद रूप से लटक रही थीं। मर्दाना बनियान के खुले और गोल
गले में से ढलकी हुई', डबल रोटी जैसी मोटी और कोमल छातियाँ
कुछ इस ढंग से बाहर को झाँक रही थीं, मानो सब्जी, तरकारी की टूटी हुई टोकरी में से गोश्त के टुकड़े दीख रहे हों। अधिक पहनने के कारण पतली बनियान के नीचे वाला भाग स्वयं ही ऊपर को उठ चुका था और नाफे का गड्ढा, इसके खमीर के आटे जैसे फूले हुए गेट पर ऐसे दिखाई देता था, जैसे किसी ने उँगली गाड़ दी हो।
यह दृश्य देख कर सैय्यद के दिमाग़ का स्वाद खराब हो गया। उसने चाहा कि खिड़की से हटकर अपने बिस्तर की ओर चला जाये और सब कुछ भूल-भाल कर सो जाये; किन्तु जाने क्यों वह सुराख पर आँख जमाये खड़ा रहा। राजो को इस अवस्था में देखकर उसके हृदय में घृणा के अंकुर जाग उठे; परन्तु इमी घृणा के कारण वह दिलचस्पी ले रहा था।
सौदागर के सब से छोटे लड़के ने जिसकी आयु तीस वर्ष के
लगभग होगी, एक बार फिर प्रार्थना भरे स्वर में कहा--
"राजो! खुदा के लिये अन्दर चली आयो। मैं तुम से वादा करता हूँ कि फिर कभी नहीं सताऊँगा। लो अब मान जायो...देखो, खुदा के लिये अब मान लो। यह तुम्हारी बगल में वकीलों का मकान<noinclude>{{rh|३२]||हवा के घोड़े}}</noinclude>
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पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/३४
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अनुश्री साव
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>है, यदि इन में से कोई जाग उठा या देख लिया, तो बड़ी शर्म का
सामना करना पड़ेगा।"
राजो चुप रही; किन्तु थोड़ी देर के बाद बोली--"मुझे मेरे कपड़े ला दो। बस अब मैं तुम्हारे यहाँ न रहूँगी। मैं तंग आ गई हूँ, मैं कल से वकीलों के यहाँ नौकरी कर लूँगी ..समझे, यदि अब तुमने मुझसे कुछ भी कहा तो खुदा की कसम शोर मचा दूँगी ..मेरे कपड़े चुप-चाप लाकर दे दो।" ..सौदागर के लड़के की आवाज़ आई .. लेकिन तुम रात भर कहाँ रहोगी?"
राजो ने कहा--"जहन्नुम में, तुम्हें क्या जाओ अपनी औरत की गोद गर्म करो। मैं तो कहीं न कहीं सो जाऊँगी"... उसकी आँखों में आँसू थे ..आँसू? ...वह सच-मुच रो रही थी।
सुराख से आँख उठाकर सैय्यद पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गया और
सोचने लगा। राजो की आँखों में आंसू देख कर उसको दुःख हुआ।
इसमें कोई आश्चर्य वाली बात नहीं कि उस दु:ख के साथ वह घृणा
भी लिपटी हुई थी जो राजो को देखकर सैय्यद के हृदय में पैदा हुई
थी; परन्तु बहुत कोमल हृदय होने के कारण वह शीघ्र ही पिघल-सा
गया। राजो की आँखों में जो शीशे के अमृतबान में चमकदार मछलियों
की तरह सदा प्यासी रहती थी, आँसू देखकर उसके हृदय ने चाहा कि
उठ कर उसे दिलासा दे......
राजो के यौवन के चार कीमती साल सौदागर भाइयों ने मामूली चटाई की तरह प्रयोग किये थे। इन वर्षों पर चारों भाइयों के नक्शेकदम इस प्रकार घुल मिल गये थे कि इन में से अब किसी का भय ही नहीं रहा था कि कोई इनके पाँव के चिह्न देख लेगा। राजो के विषय में यह कहा जा सकता है कि वह अपने पाँव के चिह्न देखती थी न दूसरों के, बस केवल चलते जाने की धुन थी। किसी ओर भी; किन्तु<noinclude>{{rh|हवा के घोड़े||[३३}}</noinclude>
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पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/३६
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Manisha yadav12
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Manisha yadav12" /></noinclude>उसके कानों में जिद्दी मस्ती के समान भिनभिना रहे थे---जहन्नुम में...तुम्हें इससे क्या...जाओ तुम अपनी औरत की गोद गरम करो...मैं कहीं न कहीं सो जाऊँगी---इन शब्दों में बेदना थी।
इसको पीड़ित देखकर सैय्यद के नामालूम विचारों को शान्ति तो अवश्य ही पहुँची थी; परन्तु उसके साथ ही इसके हृदय में दया भी पैदा हुई थी। किसी भी औरत से उसने आज तक अपनी हमदर्दी प्रगट न की थी। वह इस को दुःखी देखना चाहता था, इसलिये कि वह उसकी हमदर्दी, जो उसके हृदय-पटल पर उसके नाम की लिख चुका है, प्रगट कर सके। वह उसको सहन कर सकती थी। यदि वह गली की किसी और लड़की से हमदर्दी प्रगट करता, तो मालूम है, कितनी बड़ी मुसीबत का सामना करना पड़ता। वास्तव में इस हमदर्दी का तात्पर्य कुछ और ही आधुनिक समाज वाले निकालते।
राजो के अलावा सभी लड़कियाँ इस प्रकार जीवन काट रही थीं, जिसमें ऐसे मौके कम ही मिलते हैं। जब इन से विशेष प्रकार की हमदर्दी की जा सकती है। यदि इस प्रकार के कुछ क्षण प्राप्त भी हों, तो वह एकदम इनके हृदय में दफ़न हो जाते हैं। आशाओं और तमन्नाओं की यदि कब्रें बनती है, तो फ़ातिहा पढ़ने की इज्जात नहीं
मिलती या इसका मौका ही नसीब नहीं होता। यदि प्यार की कोई चिता तैयार भी होती है, तो आस-पास के लोग इस पर राख डाल देते हैं कि चिंगारियाँ न उठ सकें।
सैय्यद विचार करता कि यह कितना दुःख से भरा और बनावटी जीवन है। किसी को भी आजादी नहीं कि जिन्दगी के गड्डे किसी को दिखा सके? वह व्यक्ति जिनके पाँव मजबूत नहीं, इनको अपनी लड़खड़ाहटें छिपानी पड़ती हैं; क्योंकि इस प्रकार की रीत है। प्रत्येक व्यक्ति को एक जीवन अपने लिए और एक दूसरों के लिए व्यतीत
{{left|हवा के घोड़े}}
{{right|[३५}}<noinclude></noinclude>
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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 7.pdf/२०
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ममता साव9
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="ममता साव9" />{{c|सौलह}}</noinclude>{|width=100%
|-
|१०३. जोहानिसबर्गकी चिट्ठी (५-८-१९०७)||१४५
|-
|१०४. तार : सी॰ बर्डको (८-८-१९०७)||१४८
|-
|१०५. पत्र : जनरल स्मट्सके निजी सचिवको (८-८-१९०७)||१४८
|-
|१०६. तार : प्रिटोरिया समितिको (१०-८-१९०७ के पूर्व)||१५१
|-
|१०७. श्री हॉस्केनकी "अवश्यम्भावी" (१०-८-१९०७)||१५१
|-
|१०८. श्री अलीका विरोध (१०-८-१९०७)||१५३
|-
|१०९. ट्रान्सवालके भारतीय (१०-८-१९०७)||१५३
|-
|११०. अब क्या होगा? (१०-८-१९०७)||१५४
|-
|१११. समितिकी लड़ाई (१०-८-१९०७)||१५५
|-
|११२. जनरल स्मट्सका उत्तर (१०-८-१९०७)||१५५
|-
|११३. अलीका पत्र (१०-८-१९०७)||१५६
|-
|११४. हमारा कर्त्तव्य (१०-८-१९०७)||१५६
|-
|११५. केपके भारतीय (१०-८-१९०७)||१५७
|-
|११६. एस्टकोटंकी अपील (१०-८-१९०७)||१५८
|-
|११७. रॉसका पत्र (१०-८-१९०७)||१५८
|-
|११८. डर्बनकी कृषि-समितिका ओछापन (१०-८-१९०७)||१५९
|-
|११९. उमर हाजी आमद झवेरी (१०-८-१९०७)||१५९
|-
|१२०. एक पारसी महिलाकी हिम्मत (१०-८-१९०७)||१६०
|-
|१२१. भाषण : हमीदिया इस्लामिया अंजुमन में (११-८-१९०७)||१६०
|-
|१२२. तार : पीटर्सबर्गके भारतीयोंको (११-८-१९०७)||१६२
|-
|१२३. तार: पॉचेफ्स्ट्रमके भारतीयोंको (११-८-१९०७)||१६२
|-
|१२४. पत्र: 'रैंड डेली मेल' को (१२-८-१९०७)||१६३
|-
|१२५. पत्र : जनरल स्मट्सके निजी सचिवको (१५-८-१९०७)||१६४
|-
|१२६. भारतीय प्रस्तावका क्या अर्थ? (१७-८-१९०७)||१६६
|-
|१२७. पीटर्सबर्गको बधाई (१७-८-१९०७)||१६७
|-
|१२८. हनुमानकी पूँछ (१७-८-१९०७)||१६८
|-
|१२९. नेटालके व्यापारियोंको चेतावनी (१७-८-१९०७)||१६८
|-
|१३०. धोखा? (१७-८-१९०७)||१६९
|-
|१३१. मोरक्कोमें उपद्रव (१७-८-१९०७)||१७०
|-
|१३२. हेगर साहबका नया कदम (१७-८-१९०७)||१७०
|-
|१३३. कच्ची उम्रमें बीड़ी पीना रोकनेका कानून (१७-८-१९०७)||१७१
|-
|१३४. जोहानिसबर्गकी चिट्ठी (१७-८-१९०७)||१७२
|-
|१३५. पत्र : 'इंडियन ओपिनियन' को (१७-८-१९०७)||१७७
|-
|१३६. पत्र : 'स्टार' को (१९-८-१९०७)||१७८
|-
|१३७. भारतीय मुसलमानोंसे अपील (१९-८-१९०७)||१७९
|-
|१३८. पत्र : 'स्टार' को (२०-८-१९०७)||१८१
|-
|१३९. पत्र : 'रैंड डेली मेल' को (२०-८-१९०७)||१८२
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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 7.pdf/७६
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ममता साव9
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="ममता साव9" />{{rh|४८|स्मपूर्ण गांधी वाङ्मय|}}</noinclude>सभाके अध्यक्षका गीत लगभग पहले स्थानके योग्य मालूम हुआ; इसलिए हमने उन्हें एक पौंडका पुरस्कार भेज दिया है। श्री अम्बाराम ठाकरको हम बधाई देते हैं और आशा करते हैं कि गीतमें जो उद्देश्य रखा गया है उसके अनुसार स्वयं चलकर वे दूसरोंके सामने आदर्श पेश करेंगे और देशकी सेवा करेंगे। भक्ति में शौर्यका और शौर्य में भक्तिका समावेश हो तभी उन दोनोंकी शोभा बढ़ती है। इसलिए दोनों हथियार पास रखकर हम अपने कर्तव्यका पालन करते रहेंगे तभी प्रत्येक संकटसे गुजरकर अन्तमें विजयी होंगे।
बीस गीतोंके रचयिताओंमें से कुछने अपने नाम हमें भी नहीं बताये। कुछने एकसे ज्यादा गीत भेजे हैं। उनमें से जानने योग्य गीत जिन नामों से आये हैं उन नामोंके साथ हम हर सप्ताह प्रकाशित करते रहेंगे। हम किन कविताओंको जानने योग्य मानते हैं और वे किनकी हैं, यह जाननेकी इच्छा यदि पाठकोंको हो तो हम उन्हें धीरज रखने की सलाह देते हैं।
इतना लिखनेके बाद हमें यह भी लिखना चाहिए कि गोत लिखने में कवियोंने ज्यादा लगनसे काम लिया होता तो वे और भी अच्छे बन सकते थे। एक भी गौतमें कोई विशेष ओज या कला नहीं दिखाई दी। यदि और भी ज्यादा शोध की जाती तथा विशेष लगनसे काम लिया जाता तो अच्छे शब्द और उदाहरण मिल सकते थे। पाठकोंको हमारी सलाह है कि वे अधिक श्रम करें और अधिक कुशलता प्राप्त करें।
{{c|{{larger|'''''श्री अम्बाराम मंगलजी ठाकरका गीत'''''<ref> मूल गीत इस प्रकार है :
{|width=101%
|+{{c|'''या होम करीने पडो फतेह छे आगे-तले'''}}
|-
|जग जनम्या ने शुरवीर, भक्त का दाता || जनम्या ते मरवा माट हिंमत नहिं हारी;
|-
|कर्तव्य आचरे धन्य, तेहनी माता ॥ टेक ॥ || समरथ छे मालिक साथ रहम करनारो ॥ जग ॥
|-
|||या होम तणों ए अर्थ तत तैयारी
|-
|राखी पूरी विश्वास धणीनो साचो||हक मेळववा बहु लडे युरोपमा नारी ॥ जग ॥
|-
|अर्बुजेल, जेलने-जेल एम उर राचो ॥ जग ॥ || जापान करावे भान, दाखली ताजी
|-
|ने प्रगटे दिलमां प्रेम प्राण शुप्यारो || हक मागी ठामो ठाम, लेश नहि लाजो ॥ जग ॥
|-
|हिंमतनी मददे खुदा, सदा छे यारो ॥ जग ॥ || जुओ अकबरनो इतिहास सिफन्दर पूरी
|-
|सौ हलीमळी जो टेक, एक उर राखो||भड विक्रम, भोज, प्रताप, नेपोलियन शूरो॥ जग ॥
|-
|||जग जाहेर पाम्या मान अमीरने बोथा
|-
|कडवु ओसड छे जेल, सुख भव आखो ॥ जग ॥ || बहादुर तणी येसान, अवर ते थोथा ॥ जग ॥
|-
|थिक चोर चाडिया, ठक घूता थई रहेवू || रक्षक भक्षक बनी जाय कहो क्यां के'धुं
|-
|मरदो हक मलवा माद, जेल दु:ख सहेवू ॥ जग ॥ || महाराज एडवर्ड, हवे केटलु सहेवू? ॥ जग ॥
|}</ref>}}}}
:''''या होम' [बलिदान की पुकार] करके टूट पड़ो आगे विजय ही विजय है।'''
:{{gap}}'''संसार में जितने भी शूरवीर भक्त या दाता पैदा हुए हैं और जिन्होंने अपने कर्तव्य का पालन किया है उनकी माताएं धन्य है मालिक पर सच्चा और पूरा भरोसा रख कर मेरे मन में मन में यही बात छा जाए कि बस जेल ही जाना है इसके सिवा कुछ नहीं यदि दिल में जान से भी प्यारा देशभक्त प्रेम प्रकट हो जाए तो, दोस्तों खुदा सदा ही हिम्मतवालों की मदद पर रहता है। सब मिल कर यदि एक टेक मन में रखें तो जेल का कड़वा फल तो खाना पड़ेगा, लेकिन उसके बाद संसार में सुख ही सुख है।'''<noinclude>{{dhr}}
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ममता साव9
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बीस गीतोंके रचयिताओंमें से कुछने अपने नाम हमें भी नहीं बताये। कुछने एकसे ज्यादा गीत भेजे हैं। उनमें से जानने योग्य गीत जिन नामों से आये हैं उन नामोंके साथ हम हर सप्ताह प्रकाशित करते रहेंगे। हम किन कविताओंको जानने योग्य मानते हैं और वे किनकी हैं, यह जाननेकी इच्छा यदि पाठकोंको हो तो हम उन्हें धीरज रखने की सलाह देते हैं।
इतना लिखनेके बाद हमें यह भी लिखना चाहिए कि गोत लिखने में कवियोंने ज्यादा लगनसे काम लिया होता तो वे और भी अच्छे बन सकते थे। एक भी गौतमें कोई विशेष ओज या कला नहीं दिखाई दी। यदि और भी ज्यादा शोध की जाती तथा विशेष लगनसे काम लिया जाता तो अच्छे शब्द और उदाहरण मिल सकते थे। पाठकोंको हमारी सलाह है कि वे अधिक श्रम करें और अधिक कुशलता प्राप्त करें।
{{c|{{larger|'''''श्री अम्बाराम मंगलजी ठाकरका गीत'''''<ref> मूल गीत इस प्रकार है :
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|+{{c|'''या होम करीने पडो फतेह छे आगे-तले'''}}
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|जग जनम्या ने शुरवीर, भक्त का दाता || जनम्या ते मरवा माट हिंमत नहिं हारी;
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|कर्तव्य आचरे धन्य, तेहनी माता ॥ टेक ॥ || समरथ छे मालिक साथ रहम करनारो ॥ जग ॥
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|||या होम तणों ए अर्थ तत तैयारी
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|राखी पूरी विश्वास धणीनो साचो||हक मेळववा बहु लडे युरोपमा नारी ॥ जग ॥
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|अर्बुजेल, जेलने-जेल एम उर राचो ॥ जग ॥ || जापान करावे भान, दाखली ताजी
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|ने प्रगटे दिलमां प्रेम प्राण शुप्यारो || हक मागी ठामो ठाम, लेश नहि लाजो ॥ जग ॥
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|हिंमतनी मददे खुदा, सदा छे यारो ॥ जग ॥ || जुओ अकबरनो इतिहास सिफन्दर पूरी
|-
|सौ हलीमळी जो टेक, एक उर राखो||भड विक्रम, भोज, प्रताप, नेपोलियन शूरो॥ जग ॥
|-
|||जग जाहेर पाम्या मान अमीरने बोथा
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|कडवु ओसड छे जेल, सुख भव आखो ॥ जग ॥ || बहादुर तणी येसान, अवर ते थोथा ॥ जग ॥
|-
|थिक चोर चाडिया, ठक घूता थई रहेवू || रक्षक भक्षक बनी जाय कहो क्यां के'धुं
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|मरदो हक मलवा माद, जेल दु:ख सहेवू ॥ जग ॥ || महाराज एडवर्ड, हवे केटलु सहेवू? ॥ जग ॥
|}</ref>}}}}
:''''या होम' [बलिदान की पुकार] करके टूट पड़ो आगे विजय ही विजय है।'''
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