विकिस्रोत hiwikisource https://hi.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%A4:%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0 MediaWiki 1.39.0-wmf.25 first-letter मीडिया विशेष वार्ता सदस्य सदस्य वार्ता विकिस्रोत विकिस्रोत वार्ता चित्र चित्र वार्ता मीडियाविकि मीडियाविकि वार्ता साँचा साँचा वार्ता सहायता सहायता वार्ता श्रेणी श्रेणी वार्ता लेखक लेखक वार्ता अनुवाद अनुवाद वार्ता पृष्ठ पृष्ठ वार्ता विषयसूची विषयसूची वार्ता TimedText TimedText talk Module Module talk गैजेट गैजेट वार्ता गैजेट परिभाषा गैजेट परिभाषा वार्ता पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/१२ 250 62906 517606 517577 2022-08-22T05:34:38Z ममता साव9 2453 proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" />{{rh|४||}}</noinclude>&nbsp; {{c|{{x-larger|'''ग्रन्थ-परिचय'''}}<br> {{larger|'''छप्पय'''}}}} {{block center|<poem>श्री वृन्दावन-चन्द चरणजुग, चरचि चित्त धरि। दलमलि कलिमल सकल, कलुष दुख दोष मोष करि॥ गौरी-सुत गौरीस गौरि, गुरु-जन-गुण गाये। भुवन-मात भारती सुमिरि, भरतादिक ध्याये॥</poem>}} {{block center|<poem>कवि देवदत्त शृङ्गार रस, सकल-भाव-संयुक्त सँच्यो। सब नायकादि-नायक सहित, अलंकार-वर्णन रच्यो॥</poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—श्रीवृन्दावन-चन्द—श्रीकृष्ण। चरचि—पूजाकरके। दलमलि—नष्ट करके। कलिमल—कलियुग के दोष। कलुष—पाप। मोष करिनाश करके। गौरीसुत—श्रीगणेश। गौरीस—महादेव। गौरि—पार्वती। भुवनमात—संसार की माता, जगज्जननी। भारती-सरस्वती। भरतादिकभरत आदि आचार्य। संयुत-सहित। सँच्यो-संचित किया। रच्यो-बनाया। {{dhr}} {{c|{{x-larger|'''भाव'''}}<br> {{larger|'''दोहा'''}}}} {{block center|<poem>अरथ धर्म तें होइ अरु, काम अरथ तें जानु। तातें सुख, सुख को सदा, रस शृङ्गार निदानु॥ ताके कारण भाव हैं, तिनको करत विचार। जिनहिं जानि जान्यो परै, सुखदायक शृंगार॥</poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—ते-से। अरु और, तथा। तातें-इसलिए। निदानु-<noinclude></noinclude> le3ntfjmgtichfc8r6bs9jik49ptlbu 517607 517606 2022-08-22T05:37:12Z ममता साव9 2453 proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" />{{rh|४||}}</noinclude>&nbsp; {{c|{{x-larger|'''ग्रन्थ-परिचय'''}}<br> {{larger|'''छप्पय'''}}}} {{block center|<poem>श्री वृन्दावन-चन्द चरणजुग, चरचि चित्त धरि। दलमलि कलिमल सकल, कलुष दुख दोष मोष करि॥ गौरी-सुत गौरीस गौरि, गुरु-जन-गुण गाये। भुवन-मात भारती सुमिरि, भरतादिक ध्याये॥</poem>}} {{block center|<poem>कवि देवदत्त शृङ्गार रस, सकल-भाव-संयुक्त सँच्यो। सब नायकादि-नायक सहित, अलंकार-वर्णन रच्यो॥</poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—श्रीवृन्दावन-चन्द—श्रीकृष्ण। चरचि—पूजाकरके। दलमलि—नष्ट करके। कलिमल—कलियुग के दोष। कलुष—पाप। मोष करिनाश करके। गौरीसुत—श्रीगणेश। गौरीस—महादेव। गौरि—पार्वती। भुवनमात—संसार की माता, जगज्जननी। भारती—सरस्वती। भरतादिक—भरत आदि आचार्य। संयुत—सहित। सँच्यों—संचित किया। रच्यो—बनाया। {{dhr}} {{c|{{x-larger|'''भाव'''}}<br> {{larger|'''दोहा'''}}}} {{block center|<poem>अरथ धर्म तें होइ अरु, काम अरथ तें जानु। तातें सुख, सुख को सदा, रस शृङ्गार निदानु॥ ताके कारण भाव हैं, तिनको करत विचार। जिनहिं जानि जान्यो परै, सुखदायक शृंगार॥</poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—ते—से। अरु और, तथा। तातें—इसलिए। निदानु—<noinclude></noinclude> 2paxzfqykr9omqiblw8mzr0eu8shuq1 पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/१६ 250 62913 517602 338065 2022-08-22T05:10:23Z ममता साव9 2453 /* प्रमाणित */ proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" /></noinclude>&nbsp; {{c|{{x-larger|'''२—विभाव'''}}<br> {{larger|'''दोहा'''}}}} {{block center|<poem>जे विशेष करि रसनि को, उपजावत हैं भाव। भरतादिक सतकवि सबै, तिनको कहत बिभाव॥ ते विभाव द्वै भांति के, कोविद कहत बखानि। आलम्बन कहि देव अरु, उद्दीपन उर आनि॥</poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—रसनिको—रसों का। उपजावत—उत्पन्न करते हैं। {{larger|'''भावार्थ'''}}—जो भाव रसों को उत्पन्न करते हैं उन्हें भरतादिक आचार्य विभाव कहते हैं। विभावों को कवियों ने दो तरह का कहा है। एक आलम्बन और दूसरा उद्दीपन {{c|{{x-larger|'''(क) आलम्बन'''}}<br> {{larger|'''दोहा'''}}}} {{block center|<poem>रस उपजै आलम्बि जिहिं, सो आलम्बन होइ। रसहि जगावै दीप ज्यों, उद्दीपन कहि सोइ॥</poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—उपजै—उत्पन्न हो। आलम्बि—आश्रय पाकर। {{larger|'''भावार्थ'''}}—जिनका आश्रय पाकर रसों की उत्पत्ति होती है, उसे आलम्बन और जो रसों को उद्दीप्त करते हैं वे उद्दीपन कहलाते हैं।<noinclude></noinclude> lj3vnajby44yj7wqt22tvr1pz1kv6go 517603 517602 2022-08-22T05:12:28Z ममता साव9 2453 proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" /></noinclude>&nbsp; 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{{c|{{x-larger|'''उदाहरण'''}}<br> {{larger|'''सवैया'''}}}} {{block center|<poem>चितदै चितऊं जित ओर सखी, तित नन्दकिशोर की ओर ठई। दसहू दिस दूसरौ देखति ना, छबि मोहन की छिति माह छई॥ कवि कहा लों कछू कहिये, प्रतिमूरति हौं उनही की भई। बृजबासिन कौ बृज जानि परै, न भयो बृजरी बृजराज मई॥</poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—चितदै—मन लगाकर। चितऊं—देखती हूँ। जित ओर—जिस तरफ़। तित—उधर। दसहू दिस—दसों दिशाओं में। छिति—पृथ्वी। प्रतिमूरति—प्रतिमूर्त्ति, छाया। {{x-larger|'''(ख) उद्दीपन'''}}<br> {{larger|'''दोहा'''}}}} {{block center|<poem>गीत नृत्य उपवन गवन, आभूषन वन केलि। उद्दीपन शृङ्गार के, बिधु, बसन्त, बन बेलि॥</poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—नृत्य—नाच। उपवन गवन—बगीचों का जाना। बनकेलि—बनक्रीड़ा। विधु—चन्द्रमा। {{larger|'''भावार्थ'''}}—गाना, नाचना, बगीचों में जाना, गहने पहनना, बनक्रीड़ा करना, चन्द्रमा, और बसन्त ये शृङ्गार के उद्दीपन हैं। {{c|{{x-larger|'''उदाहरण पहला—(गीत)'''}}<br> {{larger|'''सवैया'''}}}} {{block center|<poem>आली अलापि बसन्त मनोरम मूरतिवन्त मनोज दिखावनि। पंचमनाद निखादहि में सुर, मूरछना गन ग्राम सुभावनि॥</poem>}}<noinclude></noinclude> tu7kwg3c8gg31kyqti0vbzqh9hbq6rc 517605 517604 2022-08-22T05:29:38Z ममता साव9 2453 proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" />{{rh||विभाव|९}}</noinclude>&nbsp; {{c|{{x-larger|'''उदाहरण'''}}<br> {{larger|'''सवैया'''}}}} {{block center|<poem>चितदै चितऊं जित ओर सखी, तित नन्दकिशोर की ओर ठई। दसहू दिस दूसरौ देखति ना, छबि मोहन की छिति माह छई॥ कवि कहा लों कछू कहिये, प्रतिमूरति हौं उनही की भई। बृजबासिन कौ बृज जानि परै, न भयो बृजरी बृजराज मई॥</poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—चितदै—मन लगाकर। चितऊं—देखती हूँ। जित ओर—जिस तरफ़। तित—उधर। दसहू दिस—दसों दिशाओं में। छिति—पृथ्वी। प्रतिमूरति—प्रतिमूर्त्ति, छाया। {{c|{{x-larger|'''(ख) उद्दीपन'''}}<br> {{larger|'''दोहा'''}}}} {{block center|<poem>गीत नृत्य उपवन गवन, आभूषन वन केलि। उद्दीपन शृङ्गार के, बिधु, बसन्त, बन बेलि॥</poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—नृत्य—नाच। उपवन गवन—बगीचों का जाना। बनकेलि—बनक्रीड़ा। विधु—चन्द्रमा। {{larger|'''भावार्थ'''}}—गाना, नाचना, बगीचों में जाना, गहने पहनना, बनक्रीड़ा करना, चन्द्रमा, और बसन्त ये शृङ्गार के उद्दीपन हैं। {{c|{{x-larger|'''उदाहरण पहला—(गीत)'''}}<br> {{larger|'''सवैया'''}}}} {{block center|<poem>आली अलापि बसन्त मनोरम मूरतिवन्त मनोज दिखावनि। पंचमनाद निखादहि में सुर, मूरछना गन ग्राम सुभावनि॥</poem>}}<noinclude></noinclude> j7fe499q2m4zcmknbaxx8h94nzzdyxt पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/१८ 250 62916 517608 337776 2022-08-22T05:39:08Z ममता साव9 2453 proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" />{{rh|'''१०'''|'''भाव-विलास'''}}</noinclude>{{center block|<poem> देव कहै मधुरी धुनि सौं, परवीन ललै कर बीन बजावनि। बावरी सी हौं भई सुनि आजु, गई गड़ि जी मै गुपाल की गावीन ॥ </poem>}} '''शब्दार्थ --''' आली—सखि। अलापि—गाकर। मूरतिवन्त—प्रत्यक्ष। मनोज—कामदेव। पंचम नाद, निखाद (निपाद)—स्वरो के भेद। सुर—स्वर। मूरछना—मूर्छना-जो दो स्वरो के बीच में बोली जाय। ग्राम—स्वरों का एक भेद। मधुरी—सुन्दर, मीठी। धुनि-ध्वनि, आवाज़। बावरी सी-पागल सी, उन्मत्त सी। बीन-वाद्य विशेष। गई गडि चुभ गयी। जी मै-मन मे, दिल में। गावनि-गीत, गाना। <center>{{xx-larger|'''उदाहरण दूसरा-(नृत्य)'''}}</center> <center>{{x-larger|'''सवैया'''}}</center> {{center block|<poem> पोरी पिछौरी के छोर छुटे, छहरै छबि मोर पखान की जामै। गोधन की गति बैनु बजैं, कविदेव सबै सुनि के धुनि आमै॥ लाज तजी गृह काज तजे, मन मोहि रही सिगरी बृज बामै। कालिंदी कूल कदम्ब के कुंज, करैं तम तोम तमासौ सो तामै॥ </poem>}} '''शब्दार्थ --''' पीरी-पीली। छहरै-शोभा देती है। जामैं-जिसमे। धुनि-ध्वनि। आमैं-आते हैं। तजी-छोड़ी। सिगरी-सब। बृजबामैं-बृज की स्त्रियाँ। कालिंदी-यमुना। कूल-किनारा। तमतोम-धना अन्धकार। तमासो तमाशा। सो-समान। तामैं-उसमें। <center>{{xx-larger|'''उदाहरण तीसरा-(उपवन-गवन)'''}}</center> <center>{{x-larger|'''सवैया'''}}</center> {{center block|<poem> बाग चली वृषभान लली सुनि, कुंजनि मै पिकपुञ्ज पुकारनि। तैसिय नूतन नूत लतान मै, गुञ्जत भौंर भरे मधु भारनि॥ </poem>}}<noinclude>[[category:भाव-विलास]]</noinclude> 8p8c7tputkiht5gny19fyacmef7jom8 517609 517608 2022-08-22T05:53:09Z ममता साव9 2453 /* प्रमाणित */ proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" />{{rh|१०|भाव-विलास}}</noinclude>&nbsp; {{block center|<poem>देव कहै मधुरी धुनि सौं, परवीन ललै कर बीन बजावनि। बावरी सी हौं भई सुनि आजु, गई गड़ि जी मैं गुपाल की गावनि॥ </poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—आली—सखि। अलापि—गाकर। मूरतिवन्त—प्रत्यक्ष। मनोज—कामदेव। पंचम नाद, निखाद (निपाद)—स्वरों के भेद। सुर—स्वर। मूरछना—मूर्छना—जो दो स्वरों के बीच में बोली जाय। ग्राम—स्वरों का एक भेद। मधुरी—सुन्दर, मीठी। धुनि—ध्वनि, आवाज़। बावरी सी—पागल सी, उन्मत्त सी। बीन—वाद्य विशेष। गई गडि—चुभ गयी। जी मैं—मन में, दिल में। गावनि—गीत, गाना। {{c|{{x-larger|'''उदाहरण दूसरा—(नृत्य)'''}}<br> {{larger|'''सवैया'''}}}} {{block center|<poem>पीरी पिछौरी के छोर छुटे, छहरै छबि मोर पखान की जामै। गोधन की गति बैनु बजैं, कविदेव सबै सुनि के धुनि आमै॥ लाज तजी गृह काज तजे, मन मोहि रही सिगरी बृज बामै। कालिंदी कूल कदम्ब के कुंज, करैं तम तोम तमासौ सो तामै॥ </poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—पीरी—पीली। छहरै—शोभा देती है। जामैं—जिसमें। धुनि—ध्वनि। आमैं—आते हैं। तजी—छोड़ी। सिगरी—सब। बृजबामैं—बृज की स्त्रियाँ। कालिंदी—यमुना। कूल—किनारा। तमतोम—घना अन्धकार। तमासो—तमाशा। सो—समान। तामैं—उसमें। {{c|{{xx-larger|'''उदाहरण तीसरा—(उपवन-गवन)'''}}<br> {{larger|'''सवैया'''}}}} {{block center|<poem> बाग चली वृषभान लली सुनि, कुंजनि मैं पिकपुञ्ज पुकारनि‌‌। तैसिय नूतन नूत लतान मैं, गुञ्जत भौंर भरे मधु भारनि॥ </poem>}}<noinclude></noinclude> 4amqpywqkfkp8of3zms3zw3zyjrq3nx 517610 517609 2022-08-22T05:54:34Z ममता साव9 2453 proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" />{{rh|१०|भाव-विलास|}}</noinclude>&nbsp; {{block center|<poem>देव कहै मधुरी धुनि सौं, परवीन ललै कर बीन बजावनि। बावरी सी हौं भई सुनि आजु, गई गड़ि जी मैं गुपाल की गावनि॥ </poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—आली—सखि। अलापि—गाकर। मूरतिवन्त—प्रत्यक्ष। मनोज—कामदेव। पंचम नाद, निखाद (निपाद)—स्वरों के भेद। सुर—स्वर। मूरछना—मूर्छना—जो दो स्वरों के बीच में बोली जाय। ग्राम—स्वरों का एक भेद। मधुरी—सुन्दर, मीठी। धुनि—ध्वनि, आवाज़। बावरी सी—पागल सी, उन्मत्त सी। बीन—वाद्य विशेष। गई गडि—चुभ गयी। जी मैं—मन में, दिल में। गावनि—गीत, गाना। {{c|{{x-larger|'''उदाहरण दूसरा—(नृत्य)'''}}<br> {{larger|'''सवैया'''}}}} {{block center|<poem>पीरी पिछौरी के छोर छुटे, छहरै छबि मोर पखान की जामै। गोधन की गति बैनु बजैं, कविदेव सबै सुनि के धुनि आमै॥ लाज तजी गृह काज तजे, मन मोहि रही सिगरी बृज बामै। कालिंदी कूल कदम्ब के कुंज, करैं तम तोम तमासौ सो तामै॥ </poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—पीरी—पीली। छहरै—शोभा देती है। जामैं—जिसमें। धुनि—ध्वनि। आमैं—आते हैं। तजी—छोड़ी। सिगरी—सब। बृजबामैं—बृज की स्त्रियाँ। कालिंदी—यमुना। कूल—किनारा। तमतोम—घना अन्धकार। तमासो—तमाशा। सो—समान। तामैं—उसमें। {{c|{{xx-larger|'''उदाहरण तीसरा—(उपवन-गवन)'''}}<br> {{larger|'''सवैया'''}}}} {{block center|<poem> बाग चली वृषभान लली सुनि, कुंजनि मैं पिकपुञ्ज पुकारनि‌‌। तैसिय नूतन नूत लतान मैं, गुञ्जत भौंर भरे मधु भारनि॥ </poem>}}<noinclude></noinclude> 8o1wz8r2bz9qcq24h7sr0n422zbfshc पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/१९ 250 62918 517611 337773 2022-08-22T06:10:16Z ममता साव9 2453 /* प्रमाणित */ proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" />{{rh||विभाव|११}}</noinclude>&nbsp; {{block center|<poem>मोहि लई कविदेवन तें, अति रूप रचे बिकचे कचनारनि। हेरत ही हरनीनयना को, हरो हियरा हरि के हिय हारनि॥</poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—वृषभानलली—राधिका। मैं—में। पिक-पुञ्ज—कोयलों का समूह। पुकारनि—बोल। तैसिय—वैसे ही। नूतन—नयी। नूत—अनोखा अनूठा गुञ्जत-गुंजारते हैं। भरे मधु भारनि—मधु के बोझ लदे हुए। बिकचे—खिले हुए। हेरत ही—देखते ही। हरनीनयना—हरिनी जैसे नैनों वाली। हरो—हरण किया, मोह लिया। हियरा—हृदय। हिय-हारनि—हृदय के हारों ने। {{c|{{x-larger|'''उदाहरण चौथा—(आभूषण)'''}}}} {{block center|<poem>खोरि मैं खेलन ल्याई सखी, सब बालको भेष बनाइ नवीनो। आरसी में निज रूप निहारि, अनङ्ग तरङ्गनि सो मनु भीनो॥ जोति जवाहर हारन की मिलि, अञ्चल को छल क्यों पट भीनो। हेरि इतै हरिनीनयना हरि, हैरत हेरि हरै हंसि दीनो॥</poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—खोरि—गली, संकुचित मार्ग। नवीनो—नय। आरसी—दर्पण। अनङ्ग—कामदेव। पट—कपड़ा। झीनो—महीन। हेरि—देखकर। {{c|{{x-larger|'''उदाहरण पाँचवां—(बन-केलि)'''}}<br> {{larger|'''सवैया'''}}}} {{block center|<poem>सोहे सरोवर बीच बधूबर, ब्याह को वेष बन्यो बर लीक सो। लाज गड़े गुरु लोगन की पट, गांठि दै ठाड़े करैं इक ठीक सो॥ न्हात पमारी से प्यारी के ओठ ते, झूठौ मजीठ निहारि नजीक सो तीकी रंगी अँखियाँ अनुराग सों, पी की वहै पिकबैनी की पीक सो॥</poem>}}<noinclude></noinclude> 6t8di2deo62uxmcdmepl5b70d2aepvf पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/२० 250 62920 517612 337771 2022-08-22T06:24:11Z ममता साव9 2453 /* प्रमाणित */ proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" />{{rh|१२|भाव-विलास|}}</noinclude>&nbsp; {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—सोहे—अच्छी लगें। पमारी—मूंगा। मजीठ—लालरंग की औषधिविशेष। नजीक—निकट, पास। पी—पति। पिकबैनी—कोयल जैसी मधुर बोलनेवाली। {{c|{{x-larger|'''उदाहरण छठा—(विधु)'''}}<br> {{larger|'''सवैया'''}}}} {{block center|<poem>दिन द्वैक तें सासुरे आई बधू, मन में मनु लाज को बीजबयो। कविदेव सखी के सिखायें मरूकै, नह्यो हिय नाह को नेहनयो॥ चितबावत चैत की चन्द्रिका ओर, चितै पति को चित चोरिलयो। दुलही के विलोचन वानन कौ, ससि आज को सान समानभयो॥</poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—मरूकैं—मुशकिल से। नह्यो—उत्पश्च हुआ। नाह—पति। नेह—स्नेह, प्रेम। चन्द्रिका—चांदनी। ससि—चन्द्रमा। सान—सिल्ली, धार रखने का पत्थर। {{c|{{x-larger|'''उदाहरण सातवां—(वसन्त)'''}}<br> {{larger|'''सवैया'''}}}} {{block center|<poem>हेरत ही हरि लीनो हियो इन, आल रसाल सिरीष जम्हीरन। चंपक बेली गुलाब जुही, पिचुमन्द मधूक कदम्ब कुटीरनि॥ खोलत काम कथा पिक बोलत, डोलत चंदन मन्द समीरनि। केसर हार सिंगारन हू, करना कचनार कनैर करीरनि॥</poem>}} {{larger|'''शब्दार्थ'''}}—आल—वृक्षविशेष। रसाल—आम। सिरीष—वृक्षविशेष। जन्हीरनि—जम्बीरी नीबू, मरुआ। चंपक, गुलाब, जुही पिचुमन्द—पुष्प विशेष। पिक—पपीहा, कोयल। समीरनि—हवा। केसर, हार सिंगार, कचनार, कनैर, करीरनि—वृक्ष विशेष।<noinclude></noinclude> 6v9hswsuofwkx5e0c9tptkn3o8a9te4 पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/९ 250 83780 517599 347239 2022-08-21T14:46:26Z Manisha yadav12 2489 /* शोधित */ proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="3" user="Manisha yadav12" /></noinclude>इस समाज में जीवन बनावटी है, प्यार बनावटी है, आँसू दो प्रकार के होते हैं और अट्टहास भी दो प्रकार के। सैय्यद राजो से प्यार तो करता है; किन्तु डरता है समाज से। प्यार निम्न वर्ग की राजो से कैसे हो सकता है? लेकिन हृदय से उसका प्यार कैसे निकाले? वह किसी भी ढंग से उसे भूल जाना चाहता था? इसलिए घर छोड़ा। उसके प्यार के ही कारण वह अब्बास जैसे साथी की सलाह पर भी फरिया से शारीरिक प्यार नहीं करना चाहता। वह तो समझता है, प्यार हर इंसान के अन्दर नई उमंगें लेकर पैदा होता है। {{c|'मुहब्बत यार की इंसाँ बना देती है इंसाँ को'}} परन्तु यह समाज सैय्यद को 'दुखी जीवन' ही दे सकेगा। वह तो अब्बास के शब्दों में आजीवन धन जोड़ता रहेगा और प्यार से जीवन में प्रकाश नहीं होगा। उस प्रकाश को जीवन में लाने के लिए आवश्यकता है---समाज के ढांचे में परिवर्तन की! क्रान्ति की!! प्रस्तुत पुस्तक प्यार के आचार्य स्वर्गीय श्री सआदत हसन मन्टो के एक मात्र उपन्यास 'बगै़र अनवान के' का अनुवाद है; परन्तु इस अनुवाद को 'बिना शीर्षक' न रख, 'हवा के घोड़े' नाम दे दिया गया है, जो इस विचार से उपयुक्त है, कि पूरा उपन्यास सैय्यद की दिमाग़ी उलझन से ही भरा पड़ा है, अपने मस्तिष्क के विचारों को ही वह पाठकों के सामने रख रहा है। आशा है कि पाठकगण इसका स्वागत करेंगे।<noinclude>{{rh|१ जुलाई १९५६||शरण}} {{rh|८]||हवा के घोड़े}}</noinclude> 23y8jjjrxh2y7rubpd54sx8jk8trck3 पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/५२ 250 84092 517600 347572 2022-08-22T01:16:19Z अनुश्री साव 80 /* शोधित */ proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>प्यार से अपने हाथ द्वारा उन हाथों को प्यार करने लगा। उसकी लाल-लाल आँखें दो अँगारे बन कर देर तक राजो की ओर देखती रहीं। राजो उसकी आँखों का सामना न कर सकी और अपने हाथ छुड़ा कर काम में लग गई। इसके बाद वह बिस्तर से उठ कर बैठ गया और कहने लगा--"राजो ..राजो ..इथर मेरी ओर देखो। महमूद गजनवी...इसका मस्तिष्क अशान्त होने वाला ही था, कि उसने अपने को संभालते हुए, महमूद गजनवी के विचार को झटक कर पुनः कहा--"इधर मेरी ओर देखो!" जानती हो, मै तुम्हारे प्यार मे बँधा हुआ हूँ, बहुत बुरी तरह से तुम्हारे प्यार में फँसा हुआ हूँ। इस प्रकार फंस गया हूँ, मानो जैसे कोई दलदल में फँस गया हो ..मैं जानता हूँ कि तुम प्यार के लायक नहीं हो; किन्तु मैं सब कुछ जानते हुए भी तुम से प्यार करता हूँ। धिक्कार है मुझ पर...अच्छा छोड़ो इन बातों को--इघर मेरी ओर देखो। खुदा के लिए मुझे तंग न करो, मैं बुखार में इतना नहीं जल रहा राजो--राजो मैं--मैं उसकी विचार शृंखला टूट गई और उसने 'मुकन्द लाल भाटिया' से कुनीन के नुक्से पर वाद-विवाद शुरू कर दिया। "डा० भाटिया, मैं आप को कैसे समझाऊं, यह कुनीन बहुत नुक़सान देने वाली वस्तु है। मैं मानता हूँ कुछ समय के लिये मलेरिया के कीटाणुओं को मार देती; किन्तु प्राकृतिक रूप में बीमारी दूर नहीं कर सकती। इसके अलावा इसकी तासीर बहुत ही खुश्क और गरम है, इसी कारण मेरे कान बन्द हो गए हैं और मेरा दिमाग़ भी बन्द हो गया है। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि किसी ने मेरे कानों और दिमाग़ में स्याही-चूम ठोस दिए हों। मैं अब ज़रा भी कुनीन नहीं खाऊँगा और नजनवी के बुत के समान सोमानाथ राजो...तुम<noinclude>{{rh|हवा के घोड़े||[५१}}</noinclude> bw6kpenwjtzwdwdg5384o5z6c29lgfs पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/५३ 250 84094 517601 347574 2022-08-22T01:32:33Z अनुश्री साव 80 /* शोधित */ proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>सोमनाथ नहीं जाओगी--मेरे माथे पर हाथ रखो ..आह . आह . यह क्या बदतमीजी है, मैं ..मै...मेरे दिमाग में अनगिनत विचार उठ रहे हैं? माँ जी आप क्यों हैरान हो रही हैं, मुझे राजो से प्यार है, हाँ! हाँ!! इस राजो से, जो सौदागरों के यहां नौकर थी और जो अब आपके पास नौकरी कर रही है। आप नहीं जानती, इसने मुझे कितना जलील बना दिया है? इसलिये कि मैं इसके प्यार में फँसा हुआ हूँ। यह प्यार नहीं, हीजड़ापन है--दुःखी हीजड़े से भी बढ़ कर है और इसका इलाज नहीं है। मुझे इन मुसीबतों को सहन करना पड़ेगा, और सारी गली का कूड़ा अपने सिर पर उठाना होगा, गन्दी गाली में हाथ डालने होंगे,यह सब कुछ होकर रहेगा--यह सब कुछ होकर रहेगा। धीरे-धीरे सैय्यद का स्वर बैठता गया और बेहोशी के चिह्न दीखने लगे। उसकी आँखें गीली थीं; किन्तु फिर भी ऐसा अनुभव होता था कि पलकों पर बोझ सा आ पड़ा है। राजो पलँग के समीप उसकी बे-जोड़ ध्वनि को सुनती रही; परन्तु उस पर इन बातों का कुछ भी प्रभाव न पड़ सका ..और यह इस प्रकार के बहुत से रोगियों की सेवा कर चुकी थी। बुखार की हालत में जब उसने अपने प्यार का चिट्ठा राजो को सुनाया, तो राजो ने क्या अनुभव किया? इसके विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसलिये उसका गोश्त से भरा हुआ चेहरा विचारों से बिल्कुल खाली था। हो सकता है कि उसके हृदय के किसी हिस्से में थोड़ी बहुत सरसराहट पैदा हुई हो; किन्तु मोटे माँस की जिल्द की तह से निकल कर बाहर न आई हो, या न आ सकी। इसने रूमाल निचोड़ा और ताजे पानी में भिगो कर उसके माथे पर रखने के लिये उठी। अब की बार इसे इस कारण से उठना पड़ा कि सैय्यद ने करवट बदल ली थीं। अब इसने सैय्यद का सिर धीरे से<noinclude>{{rh|५२]||हवा के घोड़े}}</noinclude> p0qqvru2yfutg6ru7whjvqi1k0oetw9 पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/५४ 250 84095 517613 347576 2022-08-22T07:11:04Z Manisha yadav12 2489 /* शोधित */ proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="3" user="Manisha yadav12" /></noinclude>इधर मोड़ कर माथे पर भिगा हुआ रूमाल रख दिया। अचानक ही सैय्यद की आँखें जो अर्द्ध नींद के पर्दे में पड़ी हुई थी, ऐसे खुलीं, जिस प्रकार लाल-लाल जख्मों के मुँह टाँके उधड़ जाने पर खुल जाती है। उसने क्षण भर के लिये राजो के झुके हुए मुख की ओर देखा, जिस पर कपोल थोड़े से नीचे की ओर लुढक आए थे। एक दम, उसने राजो को अपनी भुजाओं में जकड़ कर इतने जोर से सीने के साथ लगाया कि उसकी रीड़ की हड्डी कड़-कड़ बोल उठी। उठ कर उसने राजो को अपनी रांनो पर लिटा लिया और इसके मोटे-मोटे गुद-गुदे अधरों पर इतने जोर से अपने तपते हुए अधरों को रखा, जैसे वह गरम-गरम लोहे से इसे दाग़ देना चाहता हो? सैय्यद की भुजाओं में वह इस ढंग से फँसी हुई थी कि लाख प्रयत्न करने पर भी अपने को स्वतन्त्र न करा सकी। सैय्यद के अधर देर तक इसके अधरों पर प्रस करते रहे और फिर एक ही झटके में हाँफते-हाँफते उसने इसको अपने से दूर कर दिया और उठ कर ऐसे बैठ गया, मानो उसने कोई बुरा स्वप्न देवा है? राजो एक ओर सिमट गई, वह डर गई थी। उसके पेपड़ी-जमे अधर फड़क रहे थे। राजो ने तेज निगाहों से देखा! तब वह इस पर बरस पड़ा और कहने लगा--"तुम यहाँ क्या कर रही हो, जाओ! जाओ!" यह कहते-कहते सैय्यद ने अपने सिर को दोनों हाथों से थाम लिया, मानो वह गिरने लगा हो। इसके बाद वह लेट गया और धीरे-धीरे बुड़बड़ाने लगा, राजो...मुझे माफ़ कर दो, मुझे माफ़ कर दो, मुझे कुछ भी मालूम नहीं, मैं क्या कर रहा हूँ या कह रहा हूँ, बस केवल एक बात ही जानता हूँ कि मुझे पागल-पन की हद से भी अधिक तुम मे प्यार है...ओह मेरे अल्लाह, हाँ मुझे तुम से प्यार है, इसलिये नहीं कि तुम प्यार करने योग्य हो, इसलिये नहीं तुम मुझ से प्यार करती हो...फिर<noinclude>{{rh|हवा के घोड़े||[ ५३}}</noinclude> 9qzowuyf5eun9wyrbqral1c83051ais